Saturday, August 31, 2013

लेकिन अमृता....


(To Amrita - On her birth anniversary)



तुमने समाधि का वरदान नहीं
भटकन की बेचैनी का शाप पाया

इमरोज़ को लिखे गए तुम्हारे खतों ने 
कितनी रात मेरे तकिये और मन को भिगोये रखा

लडकियां जब शरीर के मिलन की रातें सजाती
तुम अपने ख्वाबों में अपनी कलम से पूछा करती
"तुम मेरा साथ दोगे? कब तक मेरा साथ दोगे?" 

तुम्हारी याद का हर शब्द ऐसा है
मानो कोई शरीर से चुभी सुइयां निकाल रहा हो

तुमने 'भूरो' की विरह-चीखों को शहनाई बनकर गाया

हाथ पकडने 
और हाथ थामने 
के बीच का फर्क तुम्ही ने मुझे समझाया

तुम्हारी कहानियों के रोष की रस्सियों ने बटकर मुझे बनाया है

औरों का मैं कह नहीं सकती 
कि किस हद तक
पर तुम्ही से थोडा कुछ मैने सीखा
हदों से आगे बढ़ना, सरहदों को पार करना और परछाईयों का पीछा करना

अब भी कर रही हूँ
करती रहूंगी... 
उम्मीद में

लेकिन अमृता
कहना चाहती हूँ
तुम्हारी तरह… 
हर किसी को इमरोज़ नहीं मिलता।

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