Tuesday, May 22, 2012

Substitute-d.

She woke up perspiring to the core. Getting accustomed to the sudden introduction of light, she reached out to her bedside table for water. That's when she realized the other side of the bed was vacant. She hopped out and started calling 'Mom? Mom? Mom, where are you?'

Mom came into the room with a handkerchief wiping her already puffed, red and swollen eyes. Poured water from the bottle, patting her back.

That's when, glass dropped  of the her hand waking her up for real, from the dream.

Since the time, she left her abode, all she wished to have mother beside her. But all she had, the pillow. Beside her.

सवाल.


और जब कभी ऐसा होता है कि खुद को खुद ही के कंधे पर उठाके थक जाती हूँ.. खुद को उतार के  फ़ेंक देती हूँ. कुछ इसे 'reform' कहते हैं, कुछ कहते है कि सांप की तरह केंचुली उतार फेंकी.. कोई हिकारत से देखता है, तो किसी की नज़रों से  सवालों   का धुआं उठ रहा होता है.
क्या ज़रूरी है कि हर बात सही / गलत, जायज़ / नाजायज़  या अच्छी / खराब हो? कुछ बातें, कुछ चीज़ें 'neutral' भी तो हो सकती हैं..

हो सकती हैं?





Monday, May 21, 2012

Yun hi..





Last night, (rather say early morning, very early earning), happened to catch 'Rajigandha' on MoviesOK. Sigh! Vidya Sinha. How many times it happens with us that we see and fell in love? It happened once again, last night, for umpteenth time. For Vidya Sinha, for Amol Palekar , for that very feeling of romance. :-)

Also, am reminded (read 'couldn't resist') to share one of the loveliest poetry written for Vidya Sinha by one of writer-friend Vimal Chandra Pandey, fondly called Vimal Da. 

Read and fall in love with her, via Vimal da's words. Yun hi.. 

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समय बहुत ख़ास है दोस्तों
इसमें सिर्फ़ ज़रूरी बातों पर ही ध्यान दिया जाता है
लोग विशेष, रिश्ते इश्तेहार और शहर बनता जा रहा है अजायबघर 
ऐसे में मेरे पास एक ऐसी आम बात है
जिसका महत्व सिर्फ़ उतना ही
जितना खीर में किशमिश का

फि़ल्मों के शौकीन पिताजी ने कभी भेजी थी एक चिट्ठी तुम्हें
जिसका जवाब भी दिया था तुमने 
वह चिट्ठी और अपने हाथों से भेजी गयी तुम्हारी तस्वीर
आज भी सुरक्षित है पिता की संदूक में

‘‘न जाने क्यूं होता है ये जि़ंदगी के साथ’’
गाती तुम उतनी ही मासूम हो आज भी
इतिहास खुद को दोहराता है
इस बात का विश्वास दिलाता है मुझे मेरा मन आज
जब कैटरीनाओं और करीनाओं के ज़माने में
चिकनी चमेलियों और उ ला ला से घिरा
मैं तुम पर मरा जा रहा हूं विद्या सिन्हा !

ज़मीर का पोस्टर लगे बस स्टॉप पर
तुम जैसे मेरा ही इंतज़ार कर रही हो
रजनीगंधा के बासी फूल गुलदस्ते से हटा
अपने चेहरे जैसे ताज़े फूल लगाती
कैसे सहेजती थी तुम इतनी सहजता 
कि लगता था तुम्हारे घर का दरवाज़ा खुलता है
मेरी बालकनी के सामने

तुम्हारी सूती साड़ी और खुले बालों को याद करता मैं
बड़ी शिद्दत से सोच रहा हूं
आम चेहरे वाली तुम्हारी सादगी भरी सुंदरता के हिस्से
क्यों आयीं दुनिया भर की जद्दोजहद
क्यों आती है ?

समय के एक प्राचीन घर में सुरक्षित है तुम्हारी त्वचा की वही कांति
चेहरे की वही सादगी और आंखों की वही मासूमियत
जो अब संग्रहालयों में भी देखने को नहीं मिलती
तुम फिल्मों की नायिका हो यानि एक कल्पनालोक की वासी
यह मानने को मन तैयार ही नहीं ऐसा सादापन है तुम्हारा
हम आज के समय से ही पहचान पाते हैं अपने कल को न विद्या !

तुम कहां चली गयी हो विद्या ?
फिल्में तो फिल्में हैं
आम जि़ंदगी से कहां गायब हो गयी हो तुम ?
न किसी खिड़की से झांकती दिखायी देती हो 
न किसी बालकनी से नीचे देखती

ये बहुत असहज बात है
जिस पर हंसा जायेगा जल्दी ही
सबको कहीं न कहीं जाना होगा
लौट कर घर आने की बात कहना एक चुटकुला माना जायेगा
ऊंचे स्थानों पर सबको बैठ कर फीते काटने होंगे
और अखबारों के पन्नों पर या टीवी पर, नहीं तो पत्रिकाओं में छा जाना होगा
अपनी कहानियों, कविताओं नहीं तो अपनी हत्याओं से
सपनों के सुलगने में सबसे बड़ी आग होगी
प्रेम अवकाश की तलाश में बारिश में भींग रहा होगा

जब गायब हो रही हैं सभी सहज चीज़ें, सहज लोग, सहज जीवन
सभी को खास बनने की भूख है
ऐसे ख़ासमख़ास समय में तुम जैसी आम को याद कर
तुम्हें प्रेम कर
मैं कविता लिखने के अलावा और क्या कर सकता हूं विद्या ?

-- विमल चन्द्र पाण्डेय 


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